
गालियों का मिर्ची की तरह उपयोग
जावेद अख्तर का एक पुराना वीडियो सोशल मीडिया पर हलचल मचा रहा है। इस वीडियो में अख्तर ने कॉमेडी में गालियों के इस्तेमाल की तुलना ऐसे की थी जैसे किसी स्वादहीन खाने में मिर्च डाल दी जाती है। उनका कहना था कि अगर आपकी बातचीत रोचक और बुद्धिमानी से भरी है, तो आपको इस तरह की चटपटापन की जरूरत नहीं होती।
उन्होंने कहा कि जैसे ओडिशा, बिहार और मेक्सिको जैसी जगहों पर गरीब लोग अपने बिना स्वाद वाले भोजन को स्वादिष्ट बनाने के लिए मिर्च का इस्तेमाल करते हैं, वैसे ही गाली गलौज को भाषा का मिर्च कहा जा सकता है। अख्तर का यह वीडियो लोगों के बीच एक बार फिर चर्चा का विषय बन गया है, जब रणवीर अल्लाहबादिया का एक विवादास्पद बयान सोशल मीडिया पर तहलका मचा रहा है।

रणवीर अल्लाहबादिया का विवादास्पद बयान
कॉमेडियन समय रैना के यूट्यूब शो 'इंडियाज़ गॉट लेटेंट' में अल्लाहबादिया ने एक प्रतियोगी से बेहद आपत्तिजनक सवाल कर दिया। उन्होंने पूछा कि वह अपने माता-पिता को सेक्स करते हुए देखना पसंद करेंगे या उसमें शामिल होना चाहेंगे। इस सवाल ने बड़े पैमाने पर हड़कंप मचा दिया।
गुवाहाटी पुलिस ने अल्लाहबादिया के खिलाफ अश्लीलता कानून के तहत एफआईआर दर्ज की है। शो के अन्य जजों, जैसे कि आशीष चंचलानी और अपूर्वा मखीजा के खिलाफ भी शिकायत दर्ज की गई है। जावेद अख्तर ने इस बहस में यह जोड़ते हुए कहा कि ऐसे 'डबल मीनिंग' वाले गाने, जो मानसिक स्वास्थ्य पर सवाल खड़े कर देते हैं, उनके सृजनकर्ताओं को खुद के बारे में विचार करना चाहिए। इस पूरे विवाद को देखते हुए कॉमेडी शो में वयस्क कंटेंट के नियमन पर चर्चाएं फिर से जोर पकड़ने लगी हैं।
19 टिप्पणि
गाली को मिर्च जैसा समझना बेकार की बात है।
जावेद साहब ने बहुत ही रोचक तुलना की है, लेकिन शब्दों का प्रयोग हमेशा सावधानी से होना चाहिए।
भाषा की शक्ति को समझना हर कलाकार की जिम्मेदारी है।
हम सबको एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए।
अरे यार एक बार झटपट गाली मार ली तो सबको लगा, जैसे सूप में तेज मिर्च डाल दी हो।
पर असल में, वो गाली भी बिन सॉस के कबाब जैसा लगती है।
अभी भी मेरे दिमाग में वही वीडियो चल रहा है।
ये सब वही करो जो पर्दे के पीछे की सच्चाई को छुपाते हैं 🕵️♂️
अगर गाली को मिर्च समझा जाए तो क्या आगे फॉर्मूला अपडेट कर देंगे?
सिर्फ एंटरटेनमेंट नहीं, इसमें साजिश की भी परत है।
गाली को मिर्च जैसा कहना बुरा नहीं, पर यह बकवास नहीं होना चाहिए।
सच कहूँ तो जावेद भाई की बात में दम है, पर कुछ लोग इसे गलत समझते हैं।
हमें भी बिंदास बोलना चाहिए, लेकिन जिम्मेदारी के साथ।
हां, बात समझ में आती है।
बिना मसाले के भोजन सूखा लगता है, वैसे ही बिना गाली के कॉमेडी फीकी।
यहाँ तो असली असली मसाला चाहिए! 🇮🇳
अगर गाली नहीं होगी तो हमारी भरतिया सेंस ऑफ़ ह्यूमर नहीं रहेगी।
चलो, थोड़ा तगड़ी गाली मारते हैं।
आगे बढ़ो, पर यह न भूलो कि शासक वर्ग हमें इस बात से रोक रहा है।
जिन्हें नियंत्रित करना चाहते हैं, वे गाली को दमन करेंगे, इसलिए हमें सावधानी से काम लेना चाहिए।
जैसे घोषणा‑प्रकाशन में शब्दों का चयन किया जाता है, वैसे ही कॉमेडी में भी।
गाली को मिर्च जैसा कहना सही नहीं है; यह सिर्फ़ एक बहाना है।
मैं मानता हूँ कि भाषा की नरमी और तीखी दोनों तरह की भूमिका होती है, लेकिन हमें संतुलन बनाकर चलना चाहिए।
अतिरेक से कुछ भी नुकसानदेह हो सकता है, चाहे वह मसाला हो या शब्द।
भाई, सबको मिर्च डालने में मज़ा आता है, पर साथ में ख़्याल रखना चाहिए कि पेट में जलन न हो।
जावेद जी का विचार दिलचस्प है, जबकि कुछ लोग इसे बेवकूफ़ी मानते हैं।
हमें समझना चाहिए कि गाली का प्रयोग कभी‑कभी तीखे विचारों को व्यक्त करने का माध्यम हो सकता है, परंतु इसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।
भाषा एक सौंदर्य है, इसे सही दिशा में ले जाना हमारी ज़िम्मेदारी है।
अगर हम गाली को मिर्च मानें तो जीवन के हर पहलू में स्वाद आ जाता है।
परंतु यह विचार कुछ हद तक अंधा है, क्योंकि मिर्च भी बहुत तेज़ हो सकती है।
संदेह की कोई जगह नहीं, बस सोचें‑ क्या हमें हर बात में तीखा स्वाद चाहिए?
जावेद अख़्तर के इस विश्लेषण में गहरी दार्शनिक समझ छिपी है।
भाषा, जैसे मिर्च, कई स्तरों पर कार्य करती है-वह स्वाद देता है, वह दर्द भी पहुंचा सकता है।
पहला स्तर वह सामाजिक सुगंध है, जहाँ गाली मज़ाकिया हो सकती है और माहौल को हल्का बनाती है।
दूसरा स्तर व्यक्तिगत सीमा है, जहाँ उसी गाली से व्यक्ति के आत्मसम्मान को चोट पहुँच सकती है।
तीसरा स्तर सांस्कृतिक प्रतीक है, जहाँ कुछ समुदाय गाली को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानते हैं, जबकि अन्य इसे असभ्य देखते हैं।
जब हम इस बात को मिर्च से जोड़ते हैं, तो हमें यह समझना चाहिए कि मिर्च का तीखा स्वाद सभी को समान रूप से नहीं पसंद आता; वही बात गाली के साथ भी लागू होती है।
अंत में, इस विमर्श में हमें एक संतुलन स्थापित करना चाहिए, जहाँ भाषा की तीक्ष्णता को नियंत्रित किया जाए, ताकि वह सामाजिक जुड़ाव को बढ़ावा दे, न कि विभाजन।
यह संतुलन वही है जिसमें कलाकारों को अपनी रचनात्मक स्वतंत्रता को सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ मिश्रित करना चाहिए।
यदि हम यह समझ पाते हैं कि मिर्च और गाली दोनों ही दोहरी तलवार हैं, तो हम अधिक संवेदनशील और समावेशी संवाद स्थापित कर सकते हैं।
इसलिए, गाली को मिर्च जैसा समझना ठीक है, बशर्ते हम उसकी तीक्ष्णता को नियंत्रित कर सकें।
भाषा की शक्ति को पहचानें, परन्तु उसकी सीमा भी समझें।
अंततः, यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम शब्दों को उस प्रकार प्रयोग करें जो सभी को लाभ पहुंचाए, न कि केवल कुछ को।
समाज के विभिन्न वर्गों को इस बात की समझ होनी चाहिए कि शब्द कैसे प्रयोग होते हैं, और इसका असर क्या पड़ता है।
इस बिंदु पर, हम खुद को अधिक विचारशील बनाते हुए आगे बढ़ सकते हैं।
मैं तो कहूँगा कि गाली को मिर्च कहने से सब ठीक हो जाता है, पर असल में चीज़ें और जटिल हैं।
हर कोई अपने अनुभव से सीखता है, इसलिए गाली के इस्तेमाल में हमें सबकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए।
वाह, मसाला पहाड़ जैसा लगा, पर असली स्वाद तो देखना बाकी है।
हास्य को ताने-बाने में रखो, वरना सब खिचड़ी बन जाएगी।
अंत में, हमें यह समझना चाहिए कि भाषा की शुद्धता और नैतिकता दोनों ही हमारे सामाजिक ताने‑बाने को बनाते हैं।
यदि हम अपने शब्दों को जिम्मेदारी से प्रयोग नहीं करेंगे, तो समाज में नैतिक पतन अवश्य होगा।
इसलिए, गाली को मिर्च जैसा कहने से पहले हमें उसके परिणामों की भी जाँच करनी चाहिए।